महामारी से बचाएगी जन-जन की भागीदारी:-श्रीमद जगतगुरु


     


सतना। जब से मनुष्य अपने आपको श्रष्टि का मुकुटमणि मान लिया,वनस्पति एवम प्राणीजगत का जिस तेजी से विनास करना आरम्भ किया,इसे देखते हुए मनीषियों का चिंतित होना स्वाभाविक है।यह बातें पुरानीलंका आश्रम चित्रकूट पीठाधीस्वर रामानुजाचार्य श्रीमद जगतगुरु जी महाराज ने मौजूदा महामारी के सवाल पर अपने संदेश में कही।उन्होंने कहा कि विज्ञान के विकास से पूर्व मनुष्य प्राकृतिक तत्वों जैसे वर्षा,आंधी, तूफान,भूकम्प,अकाल आदि की अधीनता स्वीकारने में अभ्यस्त था।किंतु विज्ञान के माध्यम से इस अधीनता से छुटकारा पा लेने के बाद अपने आपको ऐसे प्रदर्शित करने लगा जैसे गुलाम से मालिक बन गया हो,उसी का परिणाम है समूचे विस्व को मौजूदा प्राकृतिक महामारी ने औंधे मुंह खाई में गिरा दिया।
   "नए नैतिक दृष्टिकोण की आवश्यकता"
        श्री स्वामी जी ने कहा कि मौजूदा समय को देखते हुए अब नए दृष्टिकोण को विकसित करने की आवस्यकता दृष्टिगोचर होने लगी है जिससे श्रष्टि के प्रति मानव के अंतःकरण में निहित उत्कृष्टता के प्रति आदर का प्रतिष्ठापन हो।भारत राष्ट्र में बृक्ष-वनस्पतियों आदि में देवी-देवताओं का निवास अस्थान माना गया है।मानव द्वारा इस शक्ति का अतिक्रमण करने से यही संरक्षात्मक शक्ति विषाक्तता,प्रदूषण आदि के रूप में घातक सिद्ध हो रही है।इस तथ्य की जानकारी ऋषि-मनीषियों को प्राचीनकाल से थी।
   "जंगलों का कटते जाना राष्ट्र के लिए भयावह"
         श्री स्वामी जी ने कहा कि आज पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण ऋतुएं अपने शीत,ग्रीष्म,वर्षा आदि धर्म से च्युत होने लगी हैं औषधीय पौधे भी अपने प्रभाव से वंचित होने लगे हैं।जिससे मनुष्य नित नई विमारियों से ग्रसित होता जा रहा है।जबकि पेड़-पौधों की अधिकता आरोग्यकर शुद्ध वायु वितरित कर स्वास्थ्य-संवर्धन में सहायक होती है।शांतिप्रदायक यज्ञों की सुगन्धित वायु इसमें चार चांद लगा देती है।भारतीय साहित्य में रामायण काल से लेकर सम्राट चन्द्रगुप्त,आचार्य चाणक्य काल तक नागरिक स्वास्थ्यरक्षा प्रत्येक ब्यक्ति का कर्तब्य माना गया था और लापरवाही के लिए अपराध सहिंता थी।आज के पर्यावरणीय प्रदूषण और महामारी से बचने के लिए इसी तरह के प्रावधानों की आवस्यकता है,जिसमें जन-जन की भागीदारी हो।केवल सरकारी प्रयत्नों से यह सम्भव नही होगा।